Sunday, July 09, 2017

गिरधारी लाल को ‘मैन ऑफ द पोइट’ पुरस्कार

गिरधारी लाल को ‘मैन ऑफ द पोइट’ पुरस्कार
—डॉ० जगदीश व्योम


वर्तमान युग पुरस्कारों का युग हैं। कौन कितना बड़ा साहित्यकार है इसे नापो के लिए जो मापक आजकल अपनाया जा रहा है‚ वह पुरस्कार मिलने का मापक है। जिसे जितने अधिक पुरस्कार मिले हैं वह उतना ही बड़ा साहित्यकार कवि या लेखक है। पुरस्कार भी अलग–अलग तरह के हैं। हर पुरस्कार की अपनी लम्बाई, चौड़ाई और वजन निश्चित है‚ इसी से पुरस्कार मिलने वाले का भाव इंच या दो इंच बढ़ता रहता है। यदि आप अभी तक पुरस्कार पाने से वंचित हैं तो आपको किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए। असलियत यह है कि आपका साहित्यिक कद बहुत छोटा है।
पुरस्कारों के बाजार में तरह–तरह के पुरस्कार सजे हुए हैं। महंगे से महंगे और सस्ते से सस्ते। यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी औकात किस पुरस्कार को खरीद पाने की है। ‘खरीदने’ शब्द का अर्थ यह नहीं है कि पुरस्कारों को रुपया पैसे से खरीद लिये जाने की ओर संकेत है। नहीं–नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं। मेरा मतलब है कि आपकी साहित्यक औकात क्या है? भई ! पैसे से खरीदने के लिए तो और भी बहुत सी चीजें हैं। लोग पैसों से कविताएं खरीद लेते हैं। कहानियाँ खरीद लेते हैं‚ और तो और लेखकों को ही खरीद लेते हैं‚ जैसा चाहो वैसा लिखवाओ। पैसे देकर कवियों से चाहे रात भर चुटकले पढ़वाओ या भंडैती करवाओ। यह तो सब चलता है..... इसमें दिमाग खराब करने की क्या जरूरत है।
हाँ ! तो बात कर रहा था पुरस्कारों के बाजार की।
इसके भी अलग–अलग स्तर हैं। लोकल बाजार‚ शहरी बाजार‚ जिला स्तर का बाजार और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का बाजार। क्या नहीं है इनमें‚ सब कुछ है। बात तो यह है कि— “सकल पदराथ हैं जग माहीं‚ करमहीन नर पावत नाहीं।”
हमारे मोहल्ले के गिरधारी लाल जब से “मैन ऑफ द पोइट” पुरस्कार लेकर आए हैं‚ तब से वे स्वयं को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का कवि मानने लगे हैं। पत्र–पत्रिकाओं में अपने नाम का ऐसा प्रचार कराते फिर रहें हैं मानो दुनिया भर के कवि तो प्रलय के जल में बह गए‚ सिर्फ मनु के समान यही रह गये हैं। गिरधारी लाल का पुरस्कार “मैड इन इंडिया” नहीं है। ये तो विदेश का है। करोड़ों साहित्यकारों की भीड़ में आखिरकार विदेश पुरस्कार बाजार के विशेषज्ञों ने कुछ सोच समझकर ही गिरधारीलाल को पुरस्कार के लिए चुना होगा।
आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि विदेशों में ऐसी–ऐसी दूरबीन आयोजकों के पास रहती हैं जिनसे वे भारतवर्ष के गली–मोहल्ले में बैठे साहित्यकारों को हू–ब–हू वहीं से देखते रहते हैं। वे क्या लिख रहे हैं‚ सब उन्हें पता रहता है। आखिर “मैन आफॅ द पोइट” का पुरस्कार यूँ ही तो नहीं मिल जाता है।
कुछ जानकार कहते हैं कि गिरधारी लाल ने किसी जमाने में चार–पाँच कविताएँ लिखी थीं‚ जिन्हें जब–कभी वे पढ़ लिया करते हैं। उनकी कविताओं की एक–एक पंक्ति में चार–चार‚ पाँच–पाँच गलतियाँ तो रहती ही हैं। दस पेज की एक पत्रिका का संपादन किया था जिसके एक अनुच्छेद में सत्ताईस गलतियाँ थीं। यह गिरधारी लाल के साहित्यिक जीवन का रिकार्ड है। इसी पर मिला है उन्हें “मैन ऑफ द पोइट” का पुरस्कार।
जिस प्रकार केले के पत्ते में से पत्ते निकलते रहते हैं उसी तरह गिरधारी लाल के “मैन ऑफ द पोइट” पुरस्कार को लेकर बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ‚ वह बन्द नहीं हुआ। बात में से बात निकलती रही और गली–मोहल्लों में कविता के रेबीज से संक्रमित समाज चटखारे लेकर चटपटी चर्चाएं करता रहा।
एक दिन मुक्त छन्द सी हँसी हँसते गिरधारी लाल मुझे दिखाई दे गए तो मैंने भी सोचा क्यों न दूध का दूध और पानी का पानी कर ही लिया जाये। मैंने पूछा‚ ‘गिरधारी लाल जी ! आपको इतना बड़ा पुरस्कार मिला है जो करोड़ों साहित्यकारों में से किसी एक को मिलता है। परन्तु कविता के जानकार लोग तो आपके बारे में कुछ और ही बातें करते हैं........ कुछ लोगों का कहना है कि ऐसे अनेक धंधेबाज लोगों ने गैंग बना रखे हैं जो साहित्य के नाम पर कुछ पर्चे‚ कुछ प्रमाण पत्र छपवाकर दुनिया भर में पुरस्कार बाँटते फिरते हैं। ये लोग साहित्यकारों के नाम–पत्ते ढूँढ़कर उन्हें पत्र लिखते रहते हैं कुछ लोग इनके चंगुल में फँस जाते हैं तो इन्हें संस्था की सदस्यता के नाम पर सौ–दो सौ रुपये भेज देते हैं और ऐसे ही ‘मैन ऑफ द पोइट’ के पुरस्कार का छपा हुआ कागज़ डाक से प्राप्त कर लेते हैं।’
मेरी बात सुनते–सुनते गिरधारी लाल जी की आँखें लाल हो आयीं पता नहीं क्रोध से‚ पता नहीं शरम से‚ या फिर असलियत सुन लेने से। हाइकु सी हँसी हँसते हुए वे बोले‚ अरो भाई ! ये तो बातें हैं। और बातों का क्या? ये तो चलती रहती हैं। अब जिन्हें पुरस्कार नहीं मिला वे तो चिढ़ेंगे ही‚ आखिरकार मुझे इतना बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार मिला है‚ तो लोग तो मुझसे जलेंगे ही। यह तो लोगों का आन्तरिक और जन्मजात सौतिया डाह है। एक कवि आखिर दूसरे कवि के पुरस्कार की सरहाना करे भी तो क्यों ? खैर मेरे जीवन की जो साध थी वह पूरी हो गई। मैं साहित्यिक दुनिया में अमर हो गया। अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना कोई हँसी खेल है क्या ? ...... फिर डेढ़ छटाँक हँसी हँसते हुए गिरधारी लाल वहाँ से चले गए।
गिरधारी लाल अपने पुरस्कार का प्रचार–प्रसार दूरदर्शनी विज्ञापनों की तरह करते–कराते रहे। इसी बीच किसी ने इनकम टैक्स वालों के यहाँ गिरधारी लाल के पुरस्कार की समूची प्रचार सामग्री जो पत्र–पत्रिकाओं में वे छपवाते रहे थे भेज दी ........ गिरधारी लाल को पुलिस पकड़ कर ले गई। लॉकअप में बंद कर दिया। पहले तो गिरधारी लाल खुश हुए कि चलो जो लोग उनका रुतबा नहीं मान रहे थे वे भी अब मान जायेंगे। परन्तु दिसम्बर के महीने में थाने की हवालात में दो–तीन शराबियों के साथ गिरधारी लाल रात भर बिना कम्बल के रहे तब उन्हें महसूस हुआ कि थाना क्या चीज होती है। दूसरी रात की कल्पना ने ही गिरधारी लाल को तोड़ दिया। वे कहने लगे‚ “मैं तो चूरन बेचा करता हूँ‚ रेल और बसों में। चूरन बेचने के लिए मैंने जोड़–तोड़ करके दो–चार पंक्तियाँ मिला ली हैं। ये पुरस्कार तो मैंने दो सौ रुपये देकर लिया है।”
थानेदार गिरधारी लाल की बात मानने को तैयार नहीं था। बेचारे गिरधारी लाल गिड़गिड़ा रहे थे। अब वे दुनिया भर के तर्क “मैन ऑफ द पोइट” पुरस्कार की असलियत सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत कर रहे थे। गिरधारी लाल ने बातों की फिसलन में फिसलकर एक और कच्चा चिट्ठा खोल दिया। उन्होंने बताया कि यह पुरस्कार तो प्रत्येक मंगलवार को लगने वाले मंगल बजार में एक पंसारी बेचने लाता है। उसी से मैंने उसे खरीदा है। गिरधारी लाल ने थानेदार को और भी कई दुकानों के नाम पते बताए जहाँ–जहाँ ये पुरस्कार मिलते हैं। थानेदार ने इतने साहित्यिक रहस्य बता देने के बदले में गिरधारी लाल को छोड़ दिया। 
सुना है कि गुपचुप तरीके से एक ऐसी सूची तैयार करायी जा रही है जिसमें इस तरह के पुरस्कारों को खरीदकर साबुन की टिकिया की तरह पत्र–पत्रिकाओं में जो लोग अपना विज्ञापन करते–कराते रहते हैं‚ उनके नाम इस सूची में होगें। उनको क्या होगा इसे शायद गिरधारी लाल ही बता पायें।
—डॉ० जगदीश व्योम

No comments: