Sunday, July 09, 2017

लोकगीतों में अभिव्यंजित सौतिया डाह

लोकगीतों में अभिव्यंजित सौतिया डाह
-डॉ० जगदीश व्योम
भारतीय जन–समाज का मनोविज्ञान यदि कहीं संगृहीत है तो वह लोकगीतों में ही हैं।“लोकगीत विद्या देवी के बौद्धिक उद्यान के कृत्रिम फूल नहीं‚ वे मानो अकृत्रिम निसर्ग के श्वास–प्रश्वास हैं। वे भारी विद्वत्ता के भार से सूक्ष्म बुद्धि की नली के फौवारे नहीं‚ अज्ञात मलयाचल से आने वाली सुगन्धित लहरियों से उद्भूत हदय की सूक्ष्म तरगें हैं।” लोक साहित्य के पुरोधा पंडित रामनरेश त्रिपाठी के अनुसार—“ग्राम गीत प्रकृति के उद्गार हैं। इनमें अलंकार नहीं‚ केवल रस है ! छन्द नहीं केवल लय है !! लालित्य नहीं केवल माधुर्य है !!! ग्रामीण मनुष्यों के पुरूषों के मध्य हदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति गान करती है प्रकृति के गान ही ग्राम–गीत हैं।
भारत के विविध अंचलों के अभिव्यक्ति की ही प्रधानता देखने को मिलती है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि लेक गीतों का गायन प्रायः नारी कण्ठ द्वारा ही अधिक होता भारतीय समाज पुरूषों को तो अपनी भावनएँ व्यक्त करने के लिए अनेक अवसर प्राप्त होते रहते हैं परन्तु नारियाँ अपनी अनुभूतिजन्य वेदना‚ कुण्ठा‚ इच्छा‚ सुख दुःख आदि की अभिव्यक्ति यदा कदा लोकगीतों के माध्यम से ही कर पाती हैं।विभिन्न अवसरों पर गाये जाने वाले लोकगीतों में नारी मन की सहज अभिव्यक्ति देखी जा सकती हैं।
भारतीय नारी को समग्र रूप से समझना तो निश्चय ही एक दूरूह कार्य है। यह एक ऐसी गुत्थी है जिसे जितना सुलझाने का प्रयास करो और अधिक उलझती जाती है। भारतीय  समाज में नारी का अतिशय सम्मान होता है तो अपमान भी कम नहीं होता‚ वह जिसे जन्म नहीं देती है उसी से प्रताड़ित भी होती है... वह सदियों से शासित रही है और इसी में वह सन्तुष्ठ सी लगती है वह सहनशीलता की प्रतिमूर्ति‚ सेवा—भाव से आप्लावित जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त नारी के इसी त्रासद रूप को देखकर कभी अन्तर्मन से कराह उठे थे—
“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।।”
आँचल में है दूध और आँखों में पानी से परिपूूरित भारतीय नारी सब कुछ सहन करती रहती है‚ वह पुरुष प्रधान समाज के पक्षपात पूर्ण नियम—कानूनों को सहती है और खुलकर आह तक नहीं करती। सब कुछ सहने वाली नारी “सौत” को सहन नहीं कर पाती। लोक साहित्य में सौतिया डाह की सहजऔर मार्मिक अभिव्यक्ति देखने को‚ मिलती है। गोपियाँ अपने प्रिय श्याम की खुशी के लिए सारा स्वाँग कर सकती हैं परन्तु उस मुरली को‚ जिसे कृष्ण ने अपने अधरों पर रखकर बजाया है उसे अपने अधरों के पास तक फटकने नहीं देना चाहती है।क्यों? क्योंकि मुरली में गोपियाँ को अपनी सौत की छवि दिखाई देती है। अपने प्रियतम के अधरों पर अपना एकाधिकार समझने वाली गोपियाँ जब अपनी परिकल्पना पर अन्य किसी नारी ह्यमुरली काहृ अनपेक्षित अतिक्रमण देखती है तो भावुक गोपियों को मुरली‚ बाँस की मुरली नहीं वरन अपनी “सौत” प्रतीत होती है और सौत को अपने अधरों से लगाने की कल्पना से भी वे सिहर उठतीं हैं। कितनी सहज अभिव्यक्ति है सौतिया डाह की— 
“मोर पखा सिर ऊपर राखिहौं‚
गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
बाँधि पीताम्बर‚ ले लकुटी‚
वन गोधन ग्वारन संग फिरौंगी।
भावतो मोहिं मेरी रसखानि‚
सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की 
अधरान धरी अधरा न धरौंगी।।”
नारी सम्र्पण की प्रतिमूर्ति है। वह चाहती है कि वह जिसके प्रति पूर्ण रूपेण समर्पित हो‚ उस पर सिर्फ उसी का अधिकार रहेऌ और जब कोई उसक द्वारा निर्मत इस भावनात्मक परिधि के अन्दर प्रवेश करना चाहता है तो वह उसे असहनीय लगता है। कन्नौजी लोक समाज में एक कहावत है कि—“सौति चूनहँ कि बुरी होति”।अर्थात् चूनह्यआटे की भी सौति अच्छी नहीं होती फिर वास्तविक सौत का तो कहना ही क्या।
प्रत्येक पत्नी अपने पति पर पूर्ण अधिकार चाहती है‚ भले ही वह कुरूप हो। जब उसके अहं पर ठेस लगती है तो उसका नारीत्व जाग उठता है और वह 'न समस्त अवरोधों को मिटा डालना चाहती है जो उसके प्रेम में बाधक हैं। इन अवरोधकों को में वह जिसे सबसे अधिक निकट पाती हैऌ वह है उसके  पति की दूसरी पत्नी या प्रेमिका।ऐसी स्थिति में वह स्वयं को रोक नहीं पाती और उसका अनिष्ट करने का हर सम्भव प्रयास करती है। यह सौतिया डाह नारी के मानसिक धरातल में इतना गहरा बैठा है कि वह इसके नाम से ही चौंक उठती है‚ इसकी कल्पना से ही सिहर उठती है तथा सौत के प्रतीकों से भी डाह रखने लगती है।
नारी के अन्तर्मन की यह कुण्ठा‚ डाह‚ईष्र्या लोक गीतों के माध्यम से जहाँ अवसर मिला है‚ सहज रूप से प्रस्फुटित हुई है। नारी जिस बात को सीधे—सीधे  नहीं कह पाती उस संवेदनात्मक मनोविज्ञान को लोक—गीत सहज रूप से प्रकट कर देते हैं। नारी समाज में “सौत” शब्द गाली के रूप में प्रयुक्त होता है। पति और पत्नी के अबाध प्रेम के मध्य पति की बहन और पत्नी की ननद‚ अपने भाई के प्यार का कुछ हिस्सा बाँट लेती है‚ पत्नी को यह भी खलता है इसलिए
कभी—कभी हास—परिहास में और कभी आवेश में भाभियाँ अपनी ननदों के लिए सौत शब्द का प्रयोग करती पायी जाती है।भले ही यह हास—परिहास की बात हो परन्तु नारी के अचेतन मानस में अंकुरित मानसिकता का परिचायक तो है ही।
भारतीय नारी अपने पति को हर प्रकार से सन्तुष्ट करना अपना धर्म मानती है। इसके लिए वह प्रयास करती रहती है‚ परन्तु यदि नारी में कोई कमी है तो वह उसे अपना दुर्भाग्य या ईश्वर प्रदत्त अभिशाप समझ कर सहन कर लती है‚ और अपनी हार मानकर विवशता के आँसू पी लेती है। बाँझ होने‚ लूली—लँगड़ी होने या अन्य कोई खोट होने की स्थिति में कभी—कभी पत्नी स्वंय अपने पति से दूसरी शादी का प्रस्ताव रखती हुई दिखाई पड़ जाती है। यह उसका अपने पति के प्रति पूज्य भाव का ही प्रस्फुटन है। इसके विपरीत वह सौत का उलाहना पति को देती ही रहती है :—
“जो मैं होती लूली लँगड़ी‚ तो लउते सौतनियाँ‚
मेरी हिरनी जैसी चाल बलमा क्यों लाए सौतनियाँ‚
जो मैं होती बाँझ—बाँझनियाँ तो लउते सौतनियाँ‚
मेरे खेलें दुइ दुइ लाल बलमा क्यों लाए सौतनियाँ।।”
सौतिया डाह की एक विशेषता यह है कि नारी का पति किसी अन्य स्त्री के प्रति आकृष्ट होकर उससे पत्नी व्यवहार रखता है तो पत्नी को पति के प्रति उदासीन हो जाना चाहिए तथा पति से सम्बन्ध विच्छेद कर लेना चाहिए परन्तु ऐसा नहीं होता। पत्नी—पति से तो व्यंग्य बाण चलाकर ही अपने कत्र्तव्य की इति श्री कर लेती है परन्तु जिस नारी ने उसके पति को अपने प्रेम पाश में आबद्ध किया है‚ वही उसकी असली दुश्मन होती है। उस नारी को‚ यदि पत्नी का वश चले तो जीवित कदापि न छोड़े। लोक समाज में नारियों के झगड़ों के मूल में सौतिया डाह जनित कारण अधिक रहते हैं।नारी अपने प्रियतम को अपने तक ही संकुचित बनाकर रखना चाहती है और चाहती है पूर्ण समर्पण।
नैना भीतर आउ तू‚ पलक मूँद मैं लेउँ
ना हौं देखूँ और कू‚ ना तोहि देखन देहुँ
परन्तु पुरुष प्रधान समाज में‚ पुरुष बँधकर रहना नहीं चाहता। वह इसमें अपना पौरुष समझता है कि अन्य नारियाँ उसके प्रति आकर्षित होती हैं। इसलिए वह इसे मनोभाव का व्यावहारिक प्रयोग करने का प्रयास करता रहता हैं। यद्यपि नारी में भी ऐसी भावनाएँ होती हैं परन्तु वह आदर्शों एवं मर्यादा के भारी भरकम पत्थर से दबी हुई है तथा दबी रहने का अभ्यस्त सी हो गई। इसलिए वह हर—पुरुूा के बारे में सोचना भी पाप मानती है। पति के प्रति समर्पित पत्नी जब यह जान पाती है कि उसका पति किसी अन्य स्त्री के साथ रात बिताकर आया है‚तो उसकी कोमल भावनात्मक द्दष्टि में पति का चेहरा कुम्हलाया— सा लगता है। ऐसी सूक्ष्म और नारी मनोविज्ञान की झलक लोक गीतों में ही मिल सकती है—
हरे—हरे सैयाँ अनार के फूल‚
देखते निक लागे ए हरी।
हरे—हरे सोए सौति के संग‚
बलमु कुम्हिलाए ए हरी
इसी तथ्य को लोक कवि ईश्वरी ने एक भौंरे के माध्यम से स्पष्ट किया है तथा उसे उपेक्षा से देखते हुए जूठी पत्तल चाटने वाला कौवा या कुत्ता तक कह डाला है—
भौंरा जात पराए बागै तनिक लाज नहीं आवै
घर की कली कौन कम फूली‚ काहे न लेत परागै
जूठी—जाठी‚ पाातर—ईतुर भावै कूकर कागै।
एकाधिक पत्नियों के पति की स्थिति कभी—कभी देखने लायक हो जाती है। यौवन के जोश में व्यक्ति होश खो देता है और जब यौवन का ज्वार उतरता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। ऐसे दोनों पत्नियों के बीच का मोहरा मात्र बनकर रह जाते हैं। लोक समाज में इस तरह के अनेक उदाहरण  सहज ही देखने कौ मिल जाते हैं। बेचारी दोनों सेज पर सोने के लिए अपनी—अपनी ओसरीह्यनिश्चित दिनहृ तय कर लेती हैं।कितना र्मािर्मक चित्रण है इस प्रसंग का। उस व्यक्ति का सुख—चैन भला कैसे बना रह सकता है जिसके घर में दो पत्नियाँ हों। भगवान् ही मालिक है उसकी कुशलता का—
कैसे जिअइँ जिनके दुइ—दुइ नारी
बड़की कहै हमै लगुरा बनबइबे‚
छुटकी कहै लगुरा बारी सारी
बड़की कहै हमै ककना बनबइबे‚
छुटकी कहै ककना बारी सारी
बड़की कहै हम गंगा नहइबे‚
छुटकी कहै जमुना की तयारी
बड़की कहै हम ताँगा में जइबे‚
छुटकी कहै मोटर की सवारी
बड़की कहै हम सिजिया पै सोइबे‚
छुटकी कहै ओसरी है हमारी
सौतें आपस में खूब गाली—गलौज करतीं है।जब उनके अन्दर का सौतिया डाह भड़क उठता है तो वे अक्सर हाथा—पाई पर भी उतर आती हैं। लोकगीतों में सौत की हत्या कराने के लिए कभी भाई का‚ कभी देवर आदि का सहारा लेने का वर्णन मिलता है। कभी—कभी नायिका स्वयं ही सौत की हत्या के लिए तत्पर दिखाई पड़ती है—
देउ न सासु मेरी छुरिया कटरिया
कोउ‚ डारइँ सउति कउ मारि 
अपने पति पर प्राण न्यौछावर करने वाली भारतीय नारी सौत की छाया से भी दूर रहने की प्रार्थना ईश्वर से करती रहती है। परन्तु ‘सौतिया डाह’ का डर नारी
हृदय में इस प्रकार घर कर बैठा है कि उसकी मानसिक चेतना हर पलऌ हर क्षण आशंकित होती रहती है। शायद ही ऐसी कोई नारी हो जो सौतिया डाह की अनुभूति से सर्वथा वंचित हो। उन्हें पग—पग पर सौतिया डाह उद्वेलित करता रहता है। लोक नारी का पति जब तक बाहर से घर नहीं आ जाता‚ उसका मन शंकाकुल बना रहता है। बरसात की अँधेरी रातों में विरहिणी नारी की बेचैनी और अधिक बढ़ जाती है। ऐसे में उसे डर सिर्फ इस बात का रहता है कि
हो न हो उसके पति को किसी नारी ने अपने रूप पाश में फाँस लिया है— 
बादरु गरजै बिजुरी तड़कइ‚ 
बैरिन ब्यारि चलै पुरवैया
काहू सौतिन ने भरमाए‚
ननदी फेरि तुम्हारे भैया
नारी के अचेतन मानस में सौत का ऐसा डर बैठा हुआ है कि वह सोते‚ जागते‚ चलते—फिरते‚ हर समय उसी से सशंकित रहती है।उसके प्रिय को उससे विलग करने वाली प्रत्येक जड़ व चेतन वस्तु उसकी सौत बन जाती है और ऐसी प्रत्येक सौतजन्य बाधा के लिए वह उनके अनिष्ट की कामना करती है। इन पंक्तियों के लेखक को लोकगीतों का संग्रह करते समय सौतिया डाह की जलन से झुलसा हुआ एक ऐसा लोकगीत मिला‚ जिसे सौतिया डाह जन्य अनुभूति का उत्कृष्टतम लोकगीत कहा जा सकता है। दूसरों के खेतों में या कारखानो में काम करने के लिए जाने वाले ग्रामीण मजदूर जब अपनी पत्नियों को छोड़कर दूर देश के लिए रवाना होते हैं तो उन्हें ले जाने वाली रेलगाड़ी‚ बस‚ नाव आदि सबमे विरहिनी पत्नियाँ अपनी सौत की छवि ही देखती है। क्योंकि  उनके पति को उनसे विलग करने में उनका भी सहयोग रहा है।
भोली—भाली नारी रेलगाड़ी को ही अपनी सौत के रूप में देखती है और उसके अनिष्ट की कामना करती है। कैसी अद्भुत और विलक्षण कल्पना है नारी के भोले—भाले रूप निरीह मन की। ऐसी निर्मल कल्पना की अभिव्यक्ति लोकगीतों में ही देखने को मिलती है‚ अन्यत्र नहीं। जिस टिकट से उनका पति यात्रा कर रहा है‚ टिकट‚ जहाँ बह जा रहा है वह स्टेशन‚ जिस साहब के यहाँ नौकरी करता है वह साहब सब‚ उस वियोगिनी नारी  को अपने शत्रु प्रतीत होते हैं। सबके रूप में वह सौत के स्वरूप को देखती है और उनके इष्ट की कामना करती है‚ उन्हें कोसती है‚ उन्हें गाली देती है।
रेलिया बैरिन पिया को लिए जाइ रे
जौन टिकसवा से पिया मोरे जइहइँ
आवै आँधी टिकस उड़ि जाइ रे
रेलिया ...........

जौने टेसनवा पै पिया मोरे उतरें
लागै अगिया टेसन बरि जाइ रे
आवै बढ़िया सहरु बहि जाइ रे
रेलिया ...........

जौने सहबवा के पिया मोरे नौकर 
लागे गोलिया साहब मरि जाइ रे 
रेलिया ...........

जौने सवतिया के पिया मोरे आशिक
टूटै बिजुरी सौति मरि जाइ रे 
रेलिया बैरिन पिया को लिए जाइ रे

अपने पति के लिए यमराज तक से जूझ जाने वाली भारतीय नारी पति के पथ में आने वाले अन्धकार को देदीप्यमान नक्षत्र बनकर दूर भगाती है परन्तु जब—जब उसके पथ में सौत रूपी राहु पड़ जाता है‚ तो उसके जीवन में ग्रहण लग जाता है। कभी तो यह ग्रहण अल्पकालिक होता है परन्तु कभी—कभी यह ग्रहण इतना दीर्घकालिक होता कि बेचारी नारी रूपी नक्षत्र को समूचा निगल ही जाता है।

            
-डॉ० जगदीश व्योम
बी-12ए / 58 ए
सेक्टर-34, नोएडा 
पिन कोड-201301




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